Tuesday, December 14, 2010

महिला जगत

सफलता प्राप्त करने और प्रेमपूर्ण संबंध को मज़बूत बनाने का एक रहस्य जीवन में एक ऐसे घर का होना है जो मनुष्य के लिए शांतिदायक हो। यह बात तीन चीज़ों पर निर्भर है।
प्रथम घर की स्थिति, दूसरे महिला का श्रृंगार और तीसरे उसका व्यवहार।
घर, पुरुष के लिए माता का स्थान रखता है। हर मां जब अपने बच्चे को प्यार करती है तो बच्चा उसकी गर आता है।


यदि वह अपने बच्चे को डांटती - फटकारती है तब भी बच्चा उसकी ओर आता है। दोनों स्थिति में बच्चा अपनी मां के पास आता है।

पुरुष यदि घुमने - फिरने से थक जाये तो उसका मन घर जाने को चाहता है। यदि वह दिनचर्या के कार्यों से थक जाये तब भी उसका मन घर आने के लिए कहना चाहिये।
जिस घर से पुरुष भाग रहा है वह सौतेली मां है न कि मां। यदि हम यह चाहते हैं कि हमारे पति को घर में आराम मिले, वह घर में रुचि ले और घर में अपनी उपस्थिति को हर दूसरे स्थान पर अपनी उपस्थिति पर वरियता दे तो यह केवल हमारी समझदारी, क्षमता और होशियारी पर निर्भर है। घर को सजाने में सुन्दर शैली, घर की सफाई सुथराई, अच्छे, स्वादिष्ट और नाना प्रकार के पकवान बनाना तथा बच्चों की देखभाल आदि वे रोचक व आकर्षक कार्य हैं जो पति को घर आने के प्रति आकर्षित करते हैं।


प्राकृतिक रुप से हर व्यक्ति सुन्दरता व पवित्रता को पसंद करता है। पुरुष भी इस बात को पसंद करते हैं कि उनकी पत्तियां साफ़ - सुथरी, कलाकार एवं सुघड़ हों परंतु इन सबके साथ पत्नी की सुन्दरता एवं उसका श्रृंगार भी बहुत आवश्यक है। पुरुष की स्वाभिक चाहत होती है कि जब वह काम से थका मांदा घर आये तो उसे पत्नी का खिला हुआ प्रसन्नचित चेहरा नज़र आए।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के प्राणप्रिय पौत्र हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं " पत्नी के लिए आवश्यक है कि वह इत्र आदि लगाकर अपने आपको सुगंधित बनाये, अच्छे कपड़े पहने, अच्छी तरह श्रृंगार करे, यह उचित नहीं है कि महिला स्वंय को अपने हाल पर छोड़ दे बल्कि यदि हो सके तो गले में हार पहनकर स्वंय को सुशोभित करे।

पति का पत्नी और घर में दिल लगने में घर का प्रफुल्ल व आध्यात्मिक वातावरण जादू का काम करता है जो घर की महिला के व्यवहार पर निर्भर है। परिवार के सदस्यों का मानसिक स्वास्थ्य, सुरक्षा और शांति, घर की महिला के हाथ में है। यदि महिला स्वभाव अच्छा व सकारात्मक होगा तो उसके चेहरे से सकारात्मक लहरें निकलेंगी और वह पति के अतिरिक्त आस - पास के लोगों को भी प्रभावित करेंगी।


अच्छे और प्रसन्न चित्त तथा मृदु स्वभाव से महिला घर के सदस्यों को आत्मिक ऊर्जा प्रदान कर सकती है। इस प्रकार वह अपने बपको और अपने परिवार को उन मानसिक व मनोवैज्ञानिक बीमारियों से बचा सकती है जो हमें घेरे रहती हैं।
सकारात्मक स्वभाव के लिए मनुष्य को मनोरंजन की बवश्यकता है। सबसे सस्ता मनोरंजन,जो हमारे साथ इस दुनिया में आता है। हंसना, प्रसन्न चित्त रहना और मज़ाकिया प्रवृत्ति का होना है। तो इस संबंध में हमें कंजूसी से काम नहीं लेना चाहिये और दिल खोलकर रहना व व्यवहार करना चाहिये।


जब पुरुष घर में आता है तो यह उसका अधिकार है कि ऐसे संसार में प्रवेश करे जो प्रफुल्लता और प्रेम से ओत - प्रोत हो।
महिला की खुशी व प्रसन्नता से पुरुष को ऊर्जा व आशा मिलती है। एक समझदार महिला भली - भांति जानती है कि थके मांदे व्यक्ति से, जो अपने आप में खोया हुआ है, किस प्रकार व्यवहार करना चाहिये।

जब पुरुष विचारों में खोया होता है तो बात चीत कम करता है। पत्नी उससे बार बार पूछती है कि क्या हुआ है? क्यों दुखी हो? पति उत्तर देता है ठीक हूं कोई बात नहीं है। जब मत्नी को संक्षिप्त उत्तर मिलता है तो उसे केवल यह सोचना चाहिये कि इस समय पति को अकेला छोड़ दे ताकि वह अपनी कठिनाइयों व समस्याओं के समाधान के बारे में सोच सके। जब पति लघु उत्तर देता है तो वह यह चाहता है कि बप मौन धारण करके उसका समर्थन करें और उसे समय अवसर दें। इन अवसरों पर पति को हर दूसरे समय से अधिक आवश्यकता इस बात की होती है कि उसकी पत्नी प्रफुल्ल व प्रसन्न चित्त रहे।


क्योंकि पत्नी के प्रसन्न चित्त होने की स्थिति में वह अधिक सरलता से अपने आपको मस्तिष्क से जुड़े कार्यों से स्वतंत्र व मुक्त कर लेगा और सामान्य स्थिति में आ जायेगा। शायद एक महत्वपूर्ण शिकायत, जो अधिकांश महिलाएं करती हैं, पुरुषों का चुप रहना और अधिक बात न करना है। जब किसी समस्या से कोई पुरुष परेशान व खिन्न होता है तो वह कदापि उसके बारे में बात नहीं करता है और इसके बदले में अधिक चुप रहता है तथा अपने आप में खो जाता है ताकि अपनी समस्या के बारे में सोचे और उसके निदान का मार्ग खोज सके और यदि वह समस्या के निदान का कोई मार्ग नहीं खोज पाता है तो अपने आपको किसी अन्य काम में लगा लेता है ताकि अपनी कठिनाई को हूल जाये। उदाहरण स्वरुप वह समाचार पत्र पढ़ने या टेलीवीज़न देखने लगता है या इसी तरह का कोई अन्य- कार्य करने लगता है। समस्या को भुलाकर धीरे धीरे सामान्य स्थिति प्राप्त कर लेता है।


पुरुषों के विपरीत एक महिला को अपनी समस्याओं के संबंध में बात करने की आवश्यकता होती है। पति और पत्नी एक दूसरे की भिन्नता व अंतर को जानकर तथा एक दूसरे का सम्मान करके अपनी शांति की सुरक्षा कर सकते हैं। जब पत्नी को बात करने और प्रेम की आवश्यकता होती है तो उसे बात करना चाहिये और इस बात की अपेक्षा नहीं करना चाहिये कि बात करने में उसका पति पहल करेगा। । साथ ही महिला को बात सुनने के कारण अपने पति का आभार व्यक्त करना चाहिये कि मैं अपने दिल की बात तुमसे करके कितनी ख़ुश हूं तुमसे बात करके हल्की हो गयी।


इसी प्रकार पत्नी को चाहिये कि बात सुनने के कारण पति को महत्व दे। कुछ समय के बाद जब पत्नी बात करना आरंभ करती है तो उसका पति प्रसन्न हो जाता है और स्वंय को अपनी पत्नी की बात में भागीदार समझता है परंतु जब पति को यह आभास होता है कि तानाशाही ढंग से उससे मांग की जा रही है कि वह बात करे तो उसका मूड ख़राब हो जाता है और कुछ नहीं बोलता यहां तक कि यदि कहने के लिए भी कुछ होता है तो नहीं कहता बल्कि चुप रहता है क्योंकि वह यह आभास करता है कि बोलने के लिए उसे आदेश दिया गया है। पति के लिए बहुत कठिन है कि जब बात करने के लिए उसकी पत्नी उसे आदेश दे तो बात करे। पत्नी को यह पता नहीं है कि प्रश्न पर प्रश्न पूछ कर वह अपने पति को अपने आप से दूर कर रही है।

पति अपनी पत्नी की बात उस समय सुनेगा जब उसे यह पता चले कि उसे महत्व दिया जाता है अन्यथा वह यह सोचेगा कि पत्नी की बात सुनने का कोई लाभ व महत्व नहीं है। जब पति यह आभास करेगा कि बात सुनने के कारण उसे महत्व दिया जाता है और चुप रहने के कारण उसे दूर व अलग नहीं किया जाता है तो धीरे धीरे बात करने लगेगा और जब वह यह आभास करेगा कि बात करने के लिए विवश नहीं है तो बात करना आरंभ करेगा । इस बात को याद रखना चाहिये कि यदि पत्नी बात सुनने के कारण अपनी पति को महत्व देगी तो उसका पति भी उसकी बात को महत्व व सम्मान देना सीख लेगा।


घर में प्रेम से ओत प्रोत एवं स्नेहिल वातावरण के लिए इच्छे मनोबल और उत्साह की आवश्यकता होती है

Friday, December 10, 2010

इमाम हुसैन की विचारधारा जीवन्त और प्रेरणादायक


इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आंदोलन, एक एसी घटना है जिसमें प्रेरणादायक और प्रभावशाली तत्वों की भरमार है। यह आंदोलन इतना शक्तिशाली है जो हर युग में लोगों को संघर्ष और प्रयास पर प्रोत्साहित कर सकता है। निश्चित रूप से यह विशेषताएं उन ठोस विचारों के कारण हैं जिन पर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आंदोलन आधारित है।
इस आंदोलन में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का मूल उद्देश्य ईश्वरीय कर्तव्यों का पालन था। ईश्वर की ओर से जो कुछ कर्तव्य के रूप में मनुष्य के लिए अनिवार्य किया गया है वह वास्तव में हितों की रक्षा और बुराईयों से दूरी के लिए है। जो मनुष्य उपासक के महान पद पर आसीन होता है और जिसके लिए ईश्वर की उपासना गर्व का कारण होता है, वह ईश्वरीय कर्तव्यों के पालन और ईश्वर को प्रसन्न करने के अतिरिक्त किसी अन्य चीज़ के बारे में नहीं सोचता। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के कथनों और उनके कामों में जो चीज़ सब से अधिक स्पष्ट रूप से नज़र आती है वह अपने ईश्वरीय कर्तव्य का पालन और इतिहास के उस संवेदनशील काल में उचित क़दम उठाना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बुराईयों से रोकने की इमाम हुसैन की कार्यवाही, उनके विभिन्न प्रयासों का ध्रुव रही है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का एक उद्देश्य, ऐसी प्रक्रिया से लोहा लेना था जो धर्म और इस्लामी राष्ट्र की जड़ों को खोखली कर रहे थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने एसे मोर्चे से टकराने का निर्णय लिया जो समाज को धर्म की सही विचारधारा और उच्च मान्यताओं से दूर करने का प्रयास कर रही थी। यह भ्रष्ट प्रक्रिया, यद्यपि धर्म और सही इस्लामी शिक्षाओं से दूर थी किंतु स्वंय को धर्म की आड़ में छिपा कर वार करती थी। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को भलीभांति ज्ञान था कि शासन व्यवस्था में व्याप्त यह बुराई और भ्रष्टाचार इसी प्रकार जारी रहा तो धर्म की शिक्षाओं के बड़े भाग को भुला दिया जाएगा और धर्म के नाम पर केवल उसका नाम ही बाक़ी बचेगा। इसी लिए यज़ीद की भ्रष्ट व मिथ्याचारी सरकार से मुक़ाबले के लिए विशेष प्रकार की चेतना व बुद्धिमत्ता की आवश्यकता थी। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने आंदोलन के आरंभ में मदीना नगर से निकलते समय कहा थाः मैं भलाईयों की ओर बुलाने और बुराईयों से रोकने के लिए मदीना छोड़ रहा हूं।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचार धारा में अत्याचारी शासन के विरुद्ध आंदोलन, समाज के राजनीतिक ढांचे में सुधार और न्याय के आधार पर एक सरकार के गठन के लिए प्रयास भलाईयों का आदेश देने और बुराईयों से रोकने के ईश्वरीय कर्तव्य के पालन के उदाहरण हैं। ईरान के प्रसिद्ध विचारक शहीद मुतह्हरी इस विचारधारा के महत्व के बारे में कहते हैं
भलाईयों के आदेश और बुराईयों से रोकने के विचार ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन को अत्याधिक महत्वपूर्ण बना दिया। अली के पुत्र इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम भलाईयों के आदेश और बुराईयों से रोकने अर्थात इस्लामी समाज के अस्तित्व को निश्चित बनाने वाले सब से अधिक महत्वपूर्ण कार्यवाही की राह में शहीद हुए और यह एसा महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कि यदि यह न होता तो समाज टुकड़ों में बंट जाता।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम एक चेतनापूर्ण सुधारक के रूप में स्वंय का यह दायित्व समझते थे कि अत्याचार, अन्याय व भ्रष्टाचार के सामने चुप न बैठें। बनी उमैया ने प्रचारों द्वारा अपनी एसी छवि बनायी थी कि शाम क्षेत्र के लोग, उन्हें पैग़म्बरे इस्लाम के सब से निकटवर्ती समझते थे और यह सोचते थे कि भविष्य में भी उमैया का वंश ही पैग़म्बरे इस्लाम का सब से अधिक योग्य उत्तराधिकारी होगा। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को इस गलत विचारधारा पर अंकुश लगाना था और इस्लामी मामलों की देख रेख के संदर्भ में पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों की योग्यता और अधिकार को सब के सामने सिद्ध करना था। यही कारण है कि उन्होंने बसरा नगर वासियों के नाम अपने पत्र में, अपने आंदोलन के उद्देश्यों का वर्णन करते हुए लिखा थाः
हम अहलेबैत, पैग़म्बरे इस्लाम के सब से अधिक योग्य उत्तराधिकारी थे किंतु हमारा यह अधिकार हम से छीन लिया गया और अपनी योग्यता की जानकारी के बावजूद हमने समाज की भलाई और हर प्रकार की अराजकता व हंगामे को रोकने के लिए, समाज की शांति को दृष्टि में रखा किंतु अब मैं तुम लोगों को कुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम की शैली की ओर बुलाता हूं क्योंकि अब परिस्थितियां एसी हो गयी हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम की शैली नष्ट हो चुकी है और इसके स्थान पर धर्म से दूर विषयों को धर्म में शामिल कर लिया गया है। यदि तुम लोग मेरे निमंत्रण को स्वीकार करते हो तो मैं कल्याण व सफलता का मार्ग तुम लोगों को दिखाउंगा।
कर्बला के महाआंदोलन में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचारधारा इस वास्तविकता का चिन्ह है कि इस्लाम एक एसा धर्म है जो आध्यात्मिक आयामों के साथ राजनीतिक व समाजिक क्षेत्रों में भी अत्याधिक संभावनाओं का स्वामी है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचारधारा में धर्म और राजनीति का जुड़ाव इस पूरे आंदोलन में जगह जगह नज़र आता है। वास्तव में यह आंदोलन, अत्याचारी शासकों के राजनीतिक व धार्मिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध क्रांतिकारी संघर्ष था। सत्ता, नेतृत्व और अपने समाजिक भविष्य में जनता की भागीदारी, इस्लाम में अत्याधिक महत्वपूर्ण और संवेदनशील विषय है।
इसी लिए जब सत्ता किसी अयोग्य व्यक्ति के हाथ में चली जाए और वह धर्म की शिक्षाओं और नियमों पर ध्यान न दे तो इस स्थिति में ईश्वरीय आदेशों के कार्यान्वयन को निश्चित नहीं समझा जा सकता और फेर बदल तथा नये नये विषय, धर्म की मूल शिक्षाओं में मिल जाते हैं। इमाम हुसैन
अलैहिस्सलाम ने इन परिस्थितियों को सुधारने के विचार के साथ संघर्ष व आंदोलन का मार्ग अपनाया। क्योंकि वे देख रहे थे कि ईश्वरीय दूत की करनी व कथनी को भुला दिया गया है और धर्म से अलग विषयों को धर्म का रूप देकर समाज के सामने परोसा जा रहा है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की दृष्टि में मानवीय व ईश्वरीय आधारों पर, समाज-सुधार का सबसे अधिक प्रभावी साधन सत्ता है। इस स्थिति में पवित्र ईश्वरीय विचारधारा समाज में विस्तृत होती है और समाजिक न्याय जैसी मानवीय आंकाक्षाएं व्यवहारिक हो जाती हैं।
आशूर के महाआंदोलन में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचारधारा का एक आधार, न्यायप्रेम और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष था। न्याय, धर्म के स्पष्ट आदेशों में से है कि जिसका प्रभाव मानव जीवन के प्रत्येक आयाम पर व्याप्त है। उमवी शासन श्रंखला की सब से बड़ी बुराई, जनता पर अत्याचार और उनके अधिकारों की अनेदेखी थी। स्पष्ट है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जैसी हस्ती इस संदर्भ में मौन धारण नहीं कर सकती थी। क्योंकि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के विचार में चुप्पी और लापरवाही, एक प्रकार से अत्याचारियों के साथ सहयोग था। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम इस संदर्भ में हुर नामक सेनापति के सिपाहियों के सामने अपने भाषण में कहते हैं।
हे लोगो! पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा है कि यदि कोई किसी एसे अत्याचारी शासक को देखे जो ईश्वर द्वारा वैध की गयी चीज़ों को अवैध करता हो, ईश्वरीय प्रतिज्ञा व वचनों को तोड़ता हो, ईश्वरीय दूत की शैली का विरोध करता हो और अन्याय करता हो, और वह व्यक्ति एसे शासक के विरुद्ध अपनी करनी व कथनी द्वारा खड़ा न हो तो ईश्वर के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि उस व्यक्ति को भी उसी अत्याचारी का साथी समझे। हे लोगो! उमैया के वंश ने भ्रष्टाचार और विनाश को स्पष्ट कर दिया है, ईश्वरीय आदेशों को निरस्त कर दिया है और जन संपत्तियों को स्वंय से विशेष कर रखा है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के तर्क में अत्याचारी शासक के सामने मौन धारण करना बहुत बड़ा पाप है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के अस्तित्व में स्वतंत्रता प्रेम, उदारता और आत्मसम्मान का सागर ठांठे मार रहा था। यह विशेषताएं इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को अन्य लोगों से भिन्न बना देती हैं। उनमें प्रतिष्ठा व सम्मान इस सीमा तक था कि जिसके कारण वे यजीद जैसे भ्रष्ट व पापी शासक के आदेशों के पालन की प्रतिज्ञा नहीं कर सकते थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचारधारा में ऐसे शासक की आज्ञापालन की प्रतिज्ञा का परिणाम जो ईश्वर और जनता के अधिकारों का रक्षक न हो, अपमान और तुच्छता के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा। इसी लिए वे, अभूतपूर्व साहस व वीरता के साथ अत्याचार व अन्याय के प्रतीक यजीद की आज्ञापालन के विरुद्ध मज़बूत संकल्प के साथ खड़े हो जाते हैं और अन्ततः मृत्यु को गले लगा लेते हैं। वे मृत्यु को इस अपमान की तुलना में वरीयता देते हैं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचारधारा में मानवीय सम्मान का इतना महत्व है कि यदि आवश्यक हो तो मनुष्य को इसकी सुरक्षा के लिए अपने प्राण की भी आहूति दे देनी चाहिए।
इस प्रकार से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन में एसे जीवंत और आकर्षक विचार नज़र आते हैं जो इस आंदोलन को इस प्रकार के सभी आंदोलनों से भिन्न बना देते हैं। यही कारण है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का स्वतंत्रताप्रेमी आंदोलन, सभी युगों में प्रेरणादायक और प्रभावशाली रहा है और आज भी है।

मुहर्रम और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम



मुहर्रम का महीना मन-मस्तिष्क में भव्य एवं महान आन्दोलन की याद को जीवित करता है। मुहर्रम हुसैन इब्ने अली के नाम से जुड़ा हुआ है। हुसैन इब्ने अली उस महान व्यक्ति का नाम है जो वर्ष ६१ हिजरी क़मरी में करबला के मैदान में अपने ७२ निष्ठावान और त्यागी साथियों के साथ शहीद हुए। यह घटना, इस्लामी इतिहास में महान एवं भविष्य निर्धारण करने वाली घटना थी। इस घटना ने नैतिकता, वीरता तथा त्याग के अनुदाहरणीय दृष्य प्रस्तुत किये हैं।


इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आन्दोलन की स्पष्ट विशेषता यह थी कि वह समय और स्थान के बंधनों तक सीमित नहीं रहा बल्कि वह भौगोलिक एवं ऐतिहासिक सीमाओं से आगे बढ़ता गया और समस्त कालों के लिए प्रभावी एवं प्रेरणादायक हो गया। अब जब भी अत्याचार से मुक़ाबले और न्याय की सुरक्षा की बात आएगी तो हुसैन इब्ने अली का नाम हर ज़बान पर अवश्य आएगा। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आन्दोलन अपने आरम्भिक काल से अब तक उस चमकते हुए सूर्य की भांति है जो अपने प्रकाश से अंधकार को समाप्त करता है और अत्याचार से थके हुए लोगों को ऊर्जा प्रदान करता है।


सलाम हो हुसैन पर। सलाम हो उस वास्तविकता पर जो सदैव जीवित है। ईश्वर की कृपा हो उसपर जिसने ईश्वर के धर्म को जीवित करने के लिए अपने जीवन को न्योछावर कर दिया ताकि इस्लाम का मार्गदर्शन करने वाला ध्वज सदा फहराता रहे।



इस्लाम में नेतृत्व के गंभीर दायित्वों में से एक, लोगों को मार्गदर्शन के स्पष्ट मार्ग पर ला कर खड़ा करना है। जिस विषय ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को तत्कालीन समस्याओं के विरुद्ध आन्दोलन के लिए प्रेरित किया वह धर्म के मूल मानदंडों से तत्कालीन सरकार और समाज का विमुख हो जाना था। यह एसी कटु वास्तविक्ता थी जिसने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के स्वर्गवास के पश्चात पचास वर्षों के दौरान धीरे-धीरे रूप धारण किया था। पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं को भुला देना, उनके परिजनों को अलग-थलग कर देना, इस्लामी समाज में आध्यात्म का पतन, सत्ताधारियों द्वारा धन एकत्रित करना और धर्म में न पाई जाने वाली बातों को प्रचलित करना आदि वे तत्व थे जिन्होंने समाज को अज्ञानता के काल की ओर वापस लौटने की भूमिका प्रशस्त की थी।


उस समय समाज का पतन इस सीमा तक हो चुका था कि इस्लामी राष्ट्र के भविष्य का निर्धारण, यज़ीद जैसे अत्याचारी एवं भ्रष्ट शासक के हाथों में था जिसने मुसलमानों के मान-सम्मान को भारी आघात लगाया था। माविया के पुत्र यज़ीद ने जब सत्ता संभाली तो उसने सर्वप्रथम पैग़म्बरे इस्लाम (स) के नाती इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से बैअत अर्थात आज्ञा पालन का वचन मांगा। यज़ीद के लिए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जैसे व्यक्ति से बैअत लेना बहुत ही महत्वपूर्व था जो इस्लामी जगत में उच्च स्थान के स्वामी थे। यज़ीद भ्रष्ट एव अयोग्य था। सब लोग उसकी अयोग्यता और भ्रष्टता से भलि भांति अवगत थे। निश्चित रूप से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम किसी भी स्थिति में इस प्रकार के व्यक्ति की बैअत अर्थात उसकी आज्ञापालन का वचन नहीं दे सकते थे। इमाम हुसैन की दृष्टि में बनी उमय्या ऐसे लोग थे जिन्होंने ईश्वर की अवज्ञा आरंभ कर दी थी और वे भ्रष्टाचार में डूब गए थे।


इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने यज़ीद की बैअत अर्थात आज्ञा पालन का वचन देने से इन्कार किया। यह विषय, समाज पर यज़ीद के शासन के अवैध होने को दर्शाता था। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम द्वारा यज़ीद की बैअत न करने के कारण मदीने के गवर्नर को आदेश दिया गया कि वह इमाम हुसैन पर कड़ाई करे। ऐसी स्थिति में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मदीना छोड़ने का निर्णय लिया। अपने इस कार्य के लिए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम उचित अवसर की प्रतीक्षा में थे। संघर्ष की गतिविधियां जारी रखने के लिए उस समय पवित्र नगर मक्का, एक अच्छा विकल्प था। विशेषकर इसलिए कि हज का समय निकट था और हज़ में बड़ी संख्या में लोगों की उपस्थिति ने इमाम हुसैन के लिए अनुकूल स्थिति उपलब्ध करवा दी थी।



मदीने से निकलते समय इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने कहा थाः- मैं अपने नाना के धर्म के अनुयाइयों के कार्यों में सुधार करने के लिए मदीने से जा रहा हूं और मैं लोगों को भलाई का आदेश दूंगा और बुराइयों से रोकूंगा।


मक्के में प्रविष्ट होने के साथ ही इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने आन्दोलन की भूमिका प्रशस्त करने के भरसक प्रयास आरंभ कर दिये।

दूसरी ओर कूफ़ा नगर में पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों से श्रद्धा रखने वालों ने जब इमाम हुसैन की ओर से यज़ीद की बैअत न करने अर्थात आज्ञा पालन का वचन न देने की बात सुनी तो उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त की। मानों उन्हें नया जीवन मिल गया हो। क्योंकि वे ओमवी शासकों के अत्याचारों से थक चुके थे। पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों से श्रद्धा रखने वालों में से कुछ वरिष्ठ लोगों ने, जो कूफ़े मे रहते थे, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को पत्र लिखकर उन्हें कूफ़े आने का निमंत्रण दिया था। इन लोगों ने अपने पत्रों में इमाम के साथ हर प्रकार के सहयोग का वचन दिया था। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने पत्रों को प्राप्त करके मुस्लिम इब्ने अक़ील को स्थिति की समीक्षा के लिए कूफ़े भेजा। इतिहास में मिलता है कि हज़ारों कूफ़ावासियों ने मुस्लिम इब्ने अक़ील की बैअत की। जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने परिस्थिति को अनुकूल पाया तो उन्होंने हज की यात्रा को अधूरा छोड़ते हुए आठ ज़िलहिज सन ६१ हिजरी क़मरी को कुफे की ओर प्रस्थान किया।


रास्ते में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को सूचना मिली कि कूफ़े की स्थिति परिवर्तित हो चुकी है। इसका कारण यह है कि यज़ीद ने कूफ़े के शासक को उसके पद से हटाकर उसके स्थान पर उबैदुल्लाह इब्ने ज़ियाद नामक एक निर्दयी एवं भ्रष्ट व्यक्ति को नियुक्त किया है। इब्ने ज़ियाद ने दमन और आतंक के सहारे कूफ़ावासियों के विरोध को शांत कर दिया। कूफ़े के कुछ लोग भय और स्वयं को सुरक्षित रखने के दृष्टिगत इमाम हुसैन के सहयोग से पीछे हट गए। इस बीच जिन लोगों ने प्रतिरोध किया वे या तो शहीद कर दिये गए या फिर उन्हें जेलों में डाल दिया गया। कूफे के घटनाक्रम में ही इमाम हुसैन के प्रतिनिधि मुस्लिम इब्ने अक़ील को भी शहीद कर दिया गया। मुस्लिम इब्ने अक़ील की शहादत की सूचना मिलने के बावजूद इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम दृढ़ता से अपने मार्ग पर बढ़ते रहे। उन्होंने अपने साथियों को संबोधित करते हुए कहाः- हे लोगो, कूफ़ियों ने हमें अकेला छोड़ दिया है। तुममे से जो कोई भी वापस जाना चाहता है वह यहीं से वापस जा सकता है। इतिहास में मिलता है कि यह बात सुनकर कुछ लोग इमाम हुसैन के कारवान को छोड़ कर चले गए। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने मुट्ठी भर निष्ठावान साथियों के साथ कूफ़े की यात्रा जारी रखी।


अत्याचारियों के विरुद्ध संघर्ष में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की दृढ़ता इतनी अधिक थी कि उन्हें अपने साथियों की कम संख्या पर कोई चिन्ता नहीं थी। उन्होंने अपने पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम से यह अर्थपूर्ण बात सुन रखी थी कि मार्गदर्शन के मार्ग में लोगों की कम संख्या से भयभीत न हो।


इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को भलिभांति ज्ञात था कि वे अपने साथियों की कम संख्या से सैनिक विजय प्राप्त नहीं कर सकते और धोखा खाए हुए लोगों एवं कायरों से सहयोग एवं सहकारिता की प्रतीक्षा नहीं की जा सकती। उनके लिए जो बात महत्वपूर्ण थी वह अपने दायित्वों का निर्वाह था। वे केवल ईश्वरीय दायित्वों के निर्वाह के बारे में सोचते थे चाहे इस मार्ग में वे शहीद ही क्यों न कर दिये जाएं। इमाम हुसैन (अ) की दृष्टि में विजय और पराजय के मापदंड ही अलग थे।


कूफ़ा पहुंचने से पहले ही करबला नामक स्थान पर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के कारवां का यज़ीद के तीस हज़ार सैनिकों ने परिवेष्टन कर लिया। इसी स्थान पर आशूर के दिन सन ६१ हिजरी को बड़ी संख्या में कमज़ोर ईमान वालों और कम संख्या में दृढ़ संकल्प एवं आत्मविश्वास वालों के बीच ऐसा युद्ध हुआ जो इतिहास में अनउदाहरणीय है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आन्दोलन मानवीय एवं नैतिक विशेषताओं का स्पष्ट एवं उच्च उदाहरण है। इसका कारण यह है कि उस समय का रणक्षेत्र, कुफ़्र और भ्रष्टाचार के मुक़ाबले में ईमान और आध्यात्म का सच्चा उदाहरण था और प्रेम तथा ईमान के मार्ग में दृढ संकल्प वालों से वीरता, साहस तथा महान कार्यों के अतिरिक्त किसी अन्य बात की अपेक्षा नहीं की जा सकती।


यही कारण है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आन्दोलन, इतिहास में मूल्यवान ख़ज़ाने की भांति है जिसका संदेश एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ियों तक स्थानांतरित होता रहता है।